फिल्म समीक्षा: खूबसूरत
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समीक्षक: अजय शास्त्री
(संपादक: बॉलीवुड सिने रिपोर्टर)
Email: editorbcr@gmail.com
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प्रमुख कलाकार: सोनम कपूर, फवाद खान, किरण खेर और रत्ना पाठक।
निर्देशक: शशांक घोष
संगीतकार: स्नेहा खनवलकर
रेटिंग: चार स्टार
अवधि: 130 मिनट
बीसीआर (नई दिल्ली) हृषिकेष मुखर्जी की 'खूबसूरत' के मुकाबले, शशांक घोष की 'खूबसूरत' एक दम अलग है क्योंकि फिल्म की कहानी अलग है इस फिल्म कहानी में एक अनुशासित और कठोर माहौल दिखाया गया है जो आज के माहौल के बच्चे पसंद नहीं करते. परिवार के मुखिया की बीमारी के चलते परिवार में चुलबुली लेडी डॉक्टर आती है और परिवार का माहौल बदल देती है। निर्देशक शशांक घोष की 'खूबसूरत' सामंती व्यवहार और आधुनिक सोच-समझ के द्वंद्व को रोचक तरीके से पर्दे पर ले आती है।
एक हादसे से राजसी परिवार में पसरी उदासी इतनी भारी है कि सभी मुस्कराना भूल गए हैं। वे जी तो रहे हैं, लेकिन सब कुछ नियमों और औपचारिकता में बंधा है। परिवार के मुखिया घुटनों की बीमारी से खड़े होने और चलने में समर्थ नहीं हैं। उनकी देखभाल और उपचार के लिए फिजियोथिरैपिस्ट मिली चक्रवर्ती का आना होता है। दिल्ली के मध्यवर्गीय परिवार में पंजाबी मां और बंगाली पिता की बेटी मिली चक्रवर्ती उन्मुक्त स्वभाव की लड़की है। वह अपनी मां को उनके नाम से बुलाती है। राजप्रासाद के शिष्टाचार से अपरिचित मिली के मध्यवर्गीय आचार-व्यवहार से रानी साहिबा को खीझ होती रहती है। उसके आगमन और संवाद से परिवार में आरोपित अनुशासन में खलल पड़ती है। हालांकि इस कोशिश में कई दृश्यों में मिली को उजड्ड और गंवार की तरह हम देखते हैं। वह अपनी मुखरता और खुलेपन से रानी साहिबा के अलावा परिवार के सभी सदस्यों की प्रिय बन जाती है। हिंदी फिल्मों की एक मजबूरी प्रेम है। इस फिल्म में विक्रम सिंह राठौड़ और मिली के बीच प्रेम दिखाने के दृश्य जबरन नहीं डाले गए होते तो फिल्म सरल और स्वाभाविक रहती। कुछ अन्य दृश्यों में भी घिसे-पिटे प्रसंग रखे गए हैं। इस कमी के बावजूद फिल्म मनोरंजक और ताजगी से भरपूर है। इसकी प्रस्तुति में रंग, एनर्जी और नई सोच भी रखी गई है।
उदाहरण के लिए पंजाबी मां और बंगाली पिता की बेटी मिली के किरदार पर गौर करें। वह महानगरों में पली आज की लड़की है, जो देश की सांस्कृतिक विविधता की पैदाइश है। ऐसे परिवार हिंदी फिल्मों में दिखने लगे हैं। वहीं राजप्रासाद की जड़ता भी उजागर होती है। नियम और औपचारिकताओं में इच्छाएं दबायी जा रही हैं। महानगर से आई लड़की सपनों और सोच पर लगी गांठ खोल देती है। फिल्म में वह कहीं भी रानी साहिबा से टकराने या उन्हें सबक सिखाने की कोशिश नहीं करती। सब कुछ अपनी गति से बदलता जाता है और आखिरकार रानी साहिबा को महसूस होता है कि उन्होंने अपने सीने और कंधे पर जो बोझ उठा रखा था, वह फिजूल था। परिवार के सभी सदस्यों के साथ उसका व्यवहार अलग-अलग है। पता चलता है कि सभी अपनी जिंदगी में कुछ और चाहते हैं। यह फिल्म हिंदी फिल्मों में आ रही विविधता का भी सुंदर उदाहरण है।
मिली चक्रवर्ती की उन्मुक्तता को पर्दे पर जीवंत करने में सोनम कपूर की स्वाभाविकता दिखती है। ऐसा लगता है कि उन्हें खास मेहनत नहीं करनी पड़ी हैं, जबकि मिली के मिजाज को अंत तक निभा ले जाने में श्रम लगा होगा। सोनम कपूर ने मिली के स्वभाव को अपने हाव-भाव और अभिनय से रोचक बना दिया है। रानी साहिबा की भूमिका में रत्ना पाठक शाह की पकड़ और अकड़ किरदार के अनुकूल है। विक्रम सिंह राठौड़ की भूमिका में पाकिस्तानी अभिनेता फवाद खान अपनी प्रतिभा से मुग्ध करते हैं। उन्होंने अभिनय में संयम और शिष्टता का परिचय दिया है। राजा साहब की भूमिका में अमीर राजा हुसैन जंचे हैं। रामसेवक के छोटे किरदार में अशोक बांठिया भी नोटिस होते हैं।
हां, फिल्म में हिंदी शब्दों के प्रति बरती गई लापरवाही अखरती है। सूर्यगढ़ को सूर्यगड़ और संभलगढ़ को समभलगढ़ लिखना और मुख्य अभिनेता फवाद खान के हाथों में कडा पहना हुआ है और दिसंबर को डिसेंबर बोलना सही नहीं लगता।